कश्मीरी पंडितों के लिए गणतंत्र का असली सार क्या है?

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भारत अपना 73 वां गणतंत्र दिवस मनाने जा रहा है और यह हम सभी भारतवासियों के लिए गर्व का दिन है । हम ऐसे देश का प्रतिनिधित्व करते हैं जहाँ के गणतंत्र की व्याख्या जीवंत रूप में होती है ।इसलिए, यह दिन हमारे लिए और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब हम संविधान द्वारा प्रतिपादित मूल मूल्यों पर विचार करते है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित मूल्य – न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व – हम सभी के लिए पवित्र हैं और अनुकरणीय हैं । इसका स्थायी पालन करना जनता के साथ-साथ उन लोगों के लिए है जिन्हें शासन करना अनिवार्य है।
तो हमारे संवैधानिक गणतंत्र दिवस के दिन प्रस्तावना में उल्लिखित मूल्यों के सन्दर्भ में देखा जाये तो क्या हम गण और शासन के रूप में संवैधानिक मूल्यों का आदर और पालन करने में पूर्ण रूप से ईमानदार हैं ? क्या केवल तिरंगे को सम्मान दे देने से गणतंत्र अपने सगुण रूप में लौट आता है ? अगर ऐसा है तो फिर कश्मीरी पंडितों को 19 जनवरी को काला दिवस मनाने की जरूरत क्यों पड़ती ? उनका गणतंत्र 32 वर्षों के बाद भी क्या सही मायने में लौट पाया है ? तक़रीबन १ लाख बेघर कश्मीरी पंडितों के लिए सही मायने में गणतंत्र कब बहाल होगा, यह एक कटु और संवैधानिक सवाल है जो कश्मीर में अनुच्छेद 370 व 35(ए) हटाने जैसा बड़ा फैसला सरकार द्वारा लेने के बावजूद भी अस्तित्व में है । आखिर क्या चाहते हैं कश्मीरी पंडित और कैसे लौटेगा उनका गणतंत्र ?

इस विषय पर अपने विचार दे रहे हैं रमेश सिद्धू , जो हिमाचल दस्तक दैनिक समाचार -पत्र में स्थानीय संपादक के रूप में कार्यरत हैं|

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Photo by Imad Clicks
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रमेश सिद्धू (स्थानीय संपादक )
हिमाचल दस्तक दैनिक समाचार -पत्र

19 जनवरी को 1990 की उस मनहूस रात के 32 साल पूरे हो गए। 32 साल पहले… समय रहा होगा तकरीबन 8 बजे का। कट्टरपंथी जिहादी इस्लामिक ताकतों की ओर से पूरी घाटी की मस्जिदों से लाउडस्पीकर से एलान किया गया, ‘असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअर त बटनेव सान।’ यानी ‘हमें पाकिस्तान चाहिए, पंडितों के बगैर पर उनकी औरतों के साथ।’ मस्जिदों से यह एलान होने की देर थी कि घाटी में जुल्मो-सितम का जो तांडव शुरू हुआ, ये पीडि़तों की जुबानी हम अकसर टीवी न्यूज चैनलों पर सुनते रहे हैं। कश्मीरी पंडितों के घरों में आग लगाना शुरू कर दी गई, मर्दों की निर्मम हत्या कर दी जाती थी और औरतों के साथ सामूहिक बलात्कार। जत्था बनाकर आने वाले जेहादी लूटपाट, हत्या और बलात्कार कर वापस चले जाते। पुलिस, प्रशासन और सिविल सोसाइटी… कोई हिम्मत नहीं कर पा रहा था उनके खिलाफ कार्रवाई करने की। जम्मू-कश्मीर के नवनियुक्त राज्यपाल जगमोहन जब तक सेना को बुलाते, तब तक सैकड़ों कश्मीरी पंडितों की जान इस मौत के तांडव में जा चुकी थी, उनके घरों को आग के हवाले किया जा चुका था और महिलाओं की आबरू तार-तार हो चुकी थी। अगले दिन से ही कश्मीरी पंडितों का पलायन शुरू हो गया।1990 के बाद से हर जनवरी की 19 तारीख को कश्मीरी पंडित काला दिवस मनाते हैं। 19 जनवरी प्रतीक बन चुका है उस जुल्मो-सितम की रात का। कत्लो-गारत की वो रात इतनी भयानक थी कि कश्मीरी पंडितों के पास दो ही विकल्प बचे थे, धर्म बदलो या जान दे दो। तीसरा विकल्प था पलायन करने का। पलायन ही सबसे बेहतर विकल्प लगा कश्मीरी पंडितों को और उन्होंने वही चुना। करीब 4 लाख कश्मीरी पंडित घाटी से पलायन कर गए। यहां ये बताना प्रासंगिक होगा कि कश्मीरी पंडितों के साथ हुई इस त्रासदी के समय केंद्र में वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल की सरकार थी जो बीजेपी के सहयोग से चल रही थी। जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद वीपी सिंह सरकार में गृह मंत्री थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला आतंक पर लगाम कसने में नाकाम साबित रहे तो बीजेपी के कहने पर वीपी सिंह सरकार ने जगमोहन को जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाने का निर्णय लिया। कहा जाता है कि मुफ्ती मोहम्मद सईद ने जगमोहन की नियुक्ति का विरोध किया था, लेकिन सरकार बीजेपी के सहयोग से चल रही थी तो बीजेपी की बात माननी पड़ी थी। जगमोहन की नियुक्ति के विरोध में फारूक अब्दुल्ला ने इस्तीफा दिया तो प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। कहा ये भी जाता है कि 19 जनवरी, 1990 की रात राज्यपाल जगमोहन ने सेना नहीं बुलाई होती तो वहां इतना कत्ल-ए-आम होता कि लाशें गिनना मुश्किल होता।

kashmir glacier snow landscape mountain

कश्मीरी पंडितों को जम्मू के कई अस्थायी कैंपों में रखा गया और मीडिया रिपोट्र्स के मुताबिक आज भी बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडित उन कैंपों में रह रहे हैं। इसी उम्मीद के साथ कि कोई सरकार तो उनकी घर वापसी को यकीनी बनाएगी। समय-समय पर कश्मीरी पंडितों के लिए राहत पैकेज जारी किए जाने की खबरें आती हैं। प्रधानमंत्री डेवेलपमेंट पैकेज के तहत मोदी सरकार ने 2015 में 2 हजार करोड़ का राहत पैकेज भी दिया। उनके लिए जम्मू के जगती में टाउनशिप सहित कश्मीर में भी बड़ी संख्या में फ्लैट्स का निर्माण किया जा चुका है या किया जा रहा है। लेकिन रहना कड़े सुरक्षा घेरे में होगा। उधर, कश्मीरी पंडितों का कहना है कि उन्हें राहत नहीं सुरक्षित पुनर्वास चाहिए। घाटी के सभी 10 जिलों में कश्मीरी पंडितों का वास था। कॉलोनियां बनाकर उन्हें बाकी समाज से अलग-थलग एक जगह बसाने के प्रयास तो किए गए और अभी भी किए जा रहे हैं। लेकिन वे अपनी जड़ों से जुडऩा चाहते हैं। अपने घरों को लौटकर अपनी संस्कृति और रीति-रिवाजों को जिंदा रखना चाहते हैं जो अपनी मिट्टी से दूर किसी कॉलोनी में बसकर संभव नहीं है। उन्हें अपने मकान और खेत वापस चाहिए जो कट्टरपंथियों के कब्जे में हैं।

बहरहाल उसके बाद से कश्मीरी पंडित अपने घरों को वापस लौटने की राह देख रहे हैं। आज उनकी चिंता ये है कि 32 वर्षों के लंबे वक़्त में समय के बदलाव के चलते उनके अस्तित्व, संस्कृति, रीति-रिवाज, भाषा, मंदिर और अन्य धार्मिक स्थल लुप्त होने की कगार पर हैं। वे सरकार से अनुदान नहीं चाहते। उनकी मांग केवल इतनी है कि उनका सुरक्षित पुनर्वास हो और सरकार उन्हें पूर्ण सुरक्षा प्रदान करे। कश्मीर में अनुच्छेद 370 व 35(ए) हटाने जैसा बड़ा फैसला लेने के बावजूद सरकार की प्राथमिकता में कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास नहीं है। करीब ढाई साल पहले देशभर में सीएए और एनआरसी का मुद्दा गर्माया रहा। सरकार नागरिकता संशोधन एक्ट के जरिये विदेश में प्रताडि़त हिंदुओं को देश में बसाना चाहती है। ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि जब परदेस से प्रताडि़त होकर आए शरणार्थियों की इतनी चिंता है, तो क्या अपने घर में बेघर हुए, अपने ही घर में शरणार्थी बनकर रह रहे कश्मीरी पंडितों की सुध नहीं लेनी चाहिए? बेहतर होगा सरकार उन्हें भी देखे, उनके लिए भी कुछ सार्थक प्रयास करे। कश्मीरी पंडित भी प्रधानमंत्री से यह उम्मीद लगाए बैठे हैं कि वे इस मुद्दे पर व्यक्तिगत रूप से हस्तक्षेप करेंगे और उन्हें न्याय मिलेगा ।
ये लेखक के निजी विचार हैं …

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Photo by Filipa Beroš
kashmir valley India
Photo by Gianluca Grisenti

One thought on “कश्मीरी पंडितों के लिए गणतंत्र का असली सार क्या है?

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  1. मुझे लगता है कि दिशा में सरकार गंभीरता से कार्य कर रही है। जिसके सकारात्मक परिणाम निकट भविष्य में देखने को मिलेंगे।

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