रंगमंच मन बहलाने और मनोरंजन के लिए नहीं है। रंगमंच एक यज्ञशाला है, जिसके लिए रंगकर्मी को अपने विचारों में मान्यताओं में तथा कर्म में शुद्ध होना पड़ेगा । वर्तमान में रंगमंच के सामने कई प्रमुख समस्याएँ हैं , जिनमें से इंगित किया जा सकता है कि रंगमंच को लेकर सरकार ने आज़ादी के बाद से ही बहुत विशाल पैमाने पर कभी काम नहीं किया है । मात्र राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय खोल देने से रंगमंच के प्रति सरकार कि जवाबदेही ख़त्म नहीं हो सकती। भरत मुनि के नाट्य शास्त्र के अनुसार एक भी मंच देश में कहीं नहीं है ।नाट्य प्रदर्शन एक पूजा होती है जिसके लिए कायदे कानून बने हैं, पर आज सब कुछ पारम्परिक और पौराणिक रूप से ख़त्म होता जा रहा है। राज्य के जिलों में एक अदद बढ़िया प्रेक्षागृह भी नहीं है । रंगमंच के कलाकारों को कभी भी कलाओं के मुख्यधारा में नहीं जोड़ा जाना हमेशा से रंगमंच परम्परा के विचारों का दमन करती रही है ।
-रविंद्र भारती (रंगकर्मी /निर्देशक/पत्रकार)
रंगमंच भारत के लिए जीवन का कला-शास्त्र है और अत्यंत प्राचीन विधाओं में से एक है जो अभिनय, नृत्य, गायन, वादन, वेशभूषा और साज-सज्जा जैसी तमाम कलाओं का संयोजन करके उसे एक वास्तविक पृष्ठभूमि देती है और समाज की तमाम परम्पराओं और कर्मकांडों से साक्षात संचार कराती है । यह भारत की एक समृद्ध विरासत रही है जो काल- दर- काल पोषित होती रही है और विभिन्न संस्कृतियों के प्रभाव में आधुनिक होती रही है । आधुनिक भारतीय सिनेमा की अंतर्वस्तु में रंगमंच की परम्परा को तकनीकी अविष्कारों के साथ जोड़ते हुए भव्यता के साथ प्रस्तुति के प्रयास तो किये गए हैं लेकिन तकनीक और वास्तविक रूप से प्रस्तुत कलाओं व नाटकों के बीच के अंतर को साफ़ तौर पर अलग करके देखा जाना चाहिए क्योंकि प्रस्तुति के माध्यम प्रभावशीलता को कई रूप में बदल देते हैं ।
आज इस आलेख में बिहार के रंगकर्मी और निर्देशक रविंद्र भारती ने रंगमंच की समस्याओं के साथ-साथ बाल-रंगमंच की जरूरत को कई अर्थों में सामने रखा है, जो निश्चित रूप से कई मायनों में महत्वपूर्ण है । साथ ही इस आलेख में आप लेखक- रविंद्र भारती के जीवन और प्रयासों को भी पढ़ेंगे ।
“मंजिल मिल जायेगी राहे बनाके देखो सब कुछ होगा आसान अलख जगा के देखो’ उन संघर्षरत युवा-युवतियों के नाम समर्पित है, जो कुछ करने की तमन्ना लिये संघर्षरत हैं ।

क्या है बाल रंगमंच की औपचारिकता ?
बाल रंगमंच एक तरह से बच्चों को संस्कार के साथ-साथ आत्मविश्वास और अनुशासन सीखाता है ।बच्चों में जन्मजात प्रतिभा होती है, और अगर गौर किया जाये तो उनके अंदर बचपन से ही कला दिखती है। हर एक बच्चे में सीखने की क्षमता होती है। रंगमंच से बच्चों का स्वाभाविक विकास हो सकता है। ड्रामा (नाटक) कल्पनाओं को जिंदा करता है। इससे बच्चों को सीखने में आसानी होती है।‘थियेटर इन एजुकेशन ’ अथार्त रंगमंच के जरिये शिक्षा को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए तो निश्चित तौर पर बच्चों को फायदा मिलेगा। सभी विधाओं में नाटक ही एक महत्वपूर्ण विधा रूप है। जिसका रंगमंच एक महत्वपूर्ण अनिवार्य आयाम है। बाल रंगमंच बुनियादी रंगमंच है। बाल नाटकों की सफलता का रहस्य बाल रंगमंच है। बच्चों के संतुलित शारीरिक, मानसिक और सामाजिक विकास के लिए रंगमंच की परंपरा के इतिहास में पहला चरण बाल साहित्य है तो दूसरा चरण बाल रंगमंच है। वास्तव में बाल रंगमंच बाल साहित्य के अनुप्रयोग का सर्वेक्षण क्षेत्र है।

शिक्षा पद्धति की दृष्टि से भी बाल रंगमंच का महत्वपूर्ण स्थान है। बाल रंगमंच एक तरह से बच्चों का संस्कार रंगशाला है। बाल नाटकों की प्रस्तुतिकरण में दृश्यबंध, प्रकाश योजना, ध्वनि योजना, अभिनय (आंगिक, वाचिक, आहार्य, सात्विक) आदि विभिन्न पक्षों के साथ ही बाल दर्शक भी महत्वपूर्ण है। रंगमंच कला बच्चों के व्यक्तित्व के विकास में मददगार होती है।
बच्चों को खेल-खेल में कुछ सिखाना ज्यादा बेहतर और प्रायोगिक है । बच्चों के साथ नाटक तैयार करना सबसे आसान है। जैसे कच्ची माटी से कोई भी आकार बनाया जा सकता है वैसे ही बच्चों से कोई भी चरित्र की नकल करवाई जा सकती है। बच्चों को रंगमंच के एक अभिनेता के तौर पर साधने के अनेक थियेटर गेम्स हैं। थियेटर के खेलों के माध्यम से बच्चा कब अभिनय के प्रति गंभीर होता चला जाता है, कब उसके भीतर दूसरे बच्चे से अच्छा करने का जज्बा जागृत होने लगता है, उसे स्वयं पता नहीं चलता। परेशानी यह है कि बच्चों पर पढ़ाई का इतना ज्यादा बोझ है कि उनके पास दूसरे कामों के लिए समय ही नहीं बचता। इसीलिए बच्चों के साथ केवल छुट्टियों में ही काम किया जा सकता है।
क्यों जरूरी है बच्चों के मनोविज्ञान को समझना ?

बच्चों का मनोविज्ञान समझना बेहद जरूरी होता है। हरेक बच्चे की पारिवारिक और सामाजिक पृष्ठभूमि का असर उसके हाव-भाव, आचरण, व्यवहार, क्रिया-कलापों में निश्चित तौर पर झलकता है। कई बच्चे जल्दी नहीं खुलते। कई बच्चे जरूरत से ज्यादा वाचाल होते हैं। कई बोलते ही नहीं, बहुत कुरेदने पर भी शर्माते हैं या इधर-उधर देखने लगते हैं। कई बच्चे हरेक काम बेमन से करते हैं। बच्चों के व्यवहार से बच्चों के मन को टटोलना पड़ता है। धीरे-धीरे बच्चे के मन को खोलना पड़ता है। बच्चे की दिक्कतों का हल तलाशना पड़ता है। सभी बच्चों में ईश्वर ने प्रतिभा तो एक -सी दी है, जो अन्तर बच्चों के प्रदर्शन में नजर आता है, वह उनके ध्यान का फर्क है। कोई बच्चा ज्यादा ध्यान देता है, कोई कम ध्यान देता है। बच्चों के साथ काम करने वाले के लिए यह बात देखने-समझने की है कि बच्चा किस बात में अधिक रूचि लेता है। उसका ध्यान किस ओर ज्यादा केन्द्रित रहता है। बच्चों का मन बड़ा कोमल होता है। उसके मन पर छोटी-छोटी बातों का गहरा प्रभाव पड़ता है। इसके अनेक उदाहरण हैं। जैसे बच्चों में डर का भाव, आत्मविश्वास में कमी आदि। यह सब बाल मन पर किसी घटना का दुष्परिणाम भी हो सकता है।
कैसे समाज में बदलाव ला सकता है रंगमंच?
बदलते समय में व्यवस्था की विसंगतियों से संघर्षरत आम आदमी की त्रासदी से संवाद कायम करने और जमीनी स्तर पर दर्शकों तक संप्रेषित करने में रंगमंच की मौलिक दृष्टि पर भी बात होनी चाहिए। इन सभी बिंदुओं और तथ्यों को केंद्र में रख कर आने वाले समय में नए रंग-प्रयोगों और नई रंग-शैलियों के साथ हिंदी रंगमंच की एक व्यापक तस्वीर बन सकती है, जिसकी पहुंच अलग-अलग क्षेत्रों में जनमानस के अंतर्मन तक हो, जो उसकी समकालीनता और प्रासंगिकता को नया स्वरूप भी दे सकती है। मानवीय-सामाजिक सरोकारों की प्रस्तुति के लिए रंगमंच इस दृष्टि से ऐसा जीवंत माध्यम है, जिसकी बराबरी कोई विधा आसानी से नहीं कर सकती और इसकी अनंत संभावनाओं के साथ एक नए सांस्कृतिक विमर्श और समाज के निर्माण में इसकी गतिशील भूमिका निर्विवाद है।

जानिए लेखक और रंगकर्मी रविंद्र भारती को
रवीन्द्र भारती ने पिछले कुछ वर्षों में कई अच्छी रंग प्रस्तुतियों की, जिनमें धर्मवीर भारती के ‘अंधा युग’ कल्पनाओं के तहत मंचन कराया, जो आरा के इतिहास में सदा याद किया जाएगा| इस नाटक को उन्होंने बड़ों के साथ बच्चों से भी मंचन करवाया जिसकी चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर हुई थी । रवीन्द्र भारती लोक नृत्यों के अलावे नाटकों में अच्छे प्रदर्शन के लिए कई बार पुरस्कृत भी हुए। विभिन्न नाटकों में अभिनय के साथ रूप सज्जा प्रकाश एवं मंच सज्जा में भी अहम् भूमिका निभाई, जिनमें अंधेर नगरी चौपट राजा, नारद जी चुनाव के चक्कर में, उजाले की ओर, ये किसका लहू है कोन मरा, नो मैन्सलैंड, बुद्धम शरणम गच्छामि, मुख्यमंत्री, देवी, मास्टर साब , अहिंसा परमो धर्म, मेरा नाम मथुरा है आदि प्रमुख है। आरा में समय समय पर होने वाले नाट्य कार्यशालाओं के अलावे ललित कला प्रशिक्षण शिविर में भी बतौर प्रशिक्षक कार्य करते है। इसके अलावे इन्हें कहानी एवं कविता लेखन में भी रुचि है। अपने सफल होने के पीछे अपने मित्रों एवं गुरुदय सिरिल मैथ्यू एवं चन्द्रभूषण पांडेय को श्रेय देते हैं, जिन्होंने उन्हें रंगकर्म की व्यवहारिक जानकारियां दी।

अपने परिवार की चर्चा करते हुए कहते हैं कि मुझे अपने पिता से अधिक जानकारी मिली। मेरी कमियों को वे बताते डाटते और सही दिशा निर्देश देते हैं। अंत में नाटक के बारे में ये कहते हैं कि नाट्य कला एक अभ्यास और प्रशिक्षण के जरिए प्रभावकारी ढंग से किया जाता है। अभ्यास गत अनुभवों और समुचित माहौल बनाने के लिए जरूरी है कि नाटकों की प्रस्तुति होती रहे । अपने अभिनय, निर्देशकीय समझ, निर्देशकीय गुण होने के कारण उनकी प्रस्तुतियां रंगमंच के इतिहास में अध्याय बनी । अपने नये नये प्रयोगों और तकनीक के कारण इन्होंने अपने शहर में स्थान बनाना प्रारंभ किया। निर्देशकीय गुणों में अच्छी समझ के लिए ये शास्त्रीय नृत्य एवं गायन भी सीखने लगे।
युवा रंगकर्मियों को रंग निर्देशित नाटक ‘अमली में इन्हें मुंशी जी की भूमिका मिली। इसी भूमिका से ये प्रतिष्ठित हुए। वर्ष 1990 में राष्ट्रीय स्तर पर कुछ अच्छा करने की तमन्ना में इन्होंने अपनी नाट्य परिकल्पनाओं से बच्चों के लिए ए।बी।सी। नाटक का मंचन किया जिसे भोजपुर साक्षरता अभियान ‘भोर’ ने सर्वश्रेष्ट नाट्य निर्देशक रूप में रवीन्द्र भारती को पुरस्कृत किया गया। एक्टिव क्रियेटिव थियेटर और अभिनव द्वारा भी कई मंचन किया जिसे लोगों ने सराहा। उन्होंने बक्सर केन्द्रीय कारावास में 50 दिवसीय नाट्य कार्यशाला में बतौर प्रशिक्षक शिरकत कर कैदियों के बीच भी चर्चित हुए। सघन नाट्य प्रशिक्षण के जरिये भोजपुर जिला के विभिन्न विद्यालयों में बच्चों के लिए तैयार किया,जिनकी प्रस्तुति भी की गई।नाट्य प्रशिक्षण राज्य स्तरीय एवं राष्ट्रीय स्तरीय नाटकों के साथ रवीन्द्र भारती किसी परिचय के मोहताज नहीं रहे।
रवीन्द्र भारती की मेहनत तब रंग लाई जब इन्हें कला एवं संस्कृति विभाग भारत सरकार की ओर से लोक नाट्य के लिए स्कॉलरशिप मिली। उसके बाद तो रवीन्द्र भारती कदम कभी नहीं रुके। अभिनय के लिए रवींद्र भारती को कला संस्कृति मंत्रालय की ओर से राष्ट्रीय छात्रवृत्ति भी मिली। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की ओर से आयोजित 50 दिवसीय नाट्य कार्यशाला में भी भाग लिया। इस कार्यशाला में मुंशी प्रेमचंद लिखित नाटक होरी में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जीवन का पहला मंचीय नाटक विजय तेंदुलकर लिखित नाटक ‘घासीराम कोतवाल से शुरू हुआ। रवींद्र भारती ने अमली,कबीर खड़ा बाजार में ,मास्टर साहब ,बेबी,नाटक नहीं,दूर देश की कथा हवालात, अंधायुग ,चरणदास चोर ,रश्मिरथी और 100 नाटकों में बतौर अभिनेता और रंग निर्देशक के रूप में काम किया।
रवींद्र भारती ने कैम्ब्रिज और केले यूनिवर्सिटी के लिए आईएएस स्व0 मनोज श्रीवास्तव के रिसर्च “राज्य – समाज की गरीबोन्मुखी साझेदारी : नई दिशाएँ ?” पर आधारित नाटक ’डुगडुगी’ का मंचन उग्रवाद प्रभावित जिले में भोजपुर के सहार गांव में किया जिसे राष्ट्रीय अंतरष्ट्रीय स्तर पर ख्याति पाई।
रवींद्र भारती ने पत्रकारिता की शुरुआत दैनिक जागरण से की उसके बाद वे ईटीवी बिहार से जुड़े जहाँ उन्होंने कला संस्कृति विषय पर रिपोर्टिंग शुरू की। इसके अलावा रवींद्र भारती ने समाचार आधारित कई कार्यक्रमों का निर्देशन किया। जिसमें सुनो पाटलिपुत्र क्या बोले बिहार,आमने सामने,आया मौसम चुनाव का, इलेक्शन एक्सप्रेस,ईटीवी सभा,ईटीवी भारत जैसे कार्यक्रम प्रमुख थे। मीडिया संस्थान न्यूज़18 के साथ भी उन्होंने काम किया औऱ एक बार फिर चैनल की बेहतरी के लिए कई कार्यक्रम शुरू किया। राष्ट्रीय स्तर पर रवींद्र भारती को नाटक और पत्रकारिता के लिए कई सम्मान मिल चुके हैं। 2021में आरा में बच्चों और बड़ों के लिए 20 दिवसीय निशुल्क नाट्य कार्यशाला का आयोजन आरा में किया जिसे लोगों ने सराहा ,रवीन्द्र भारती ने कई टीवी सिरीयल और लघु फिल्मों में काम किया है। इन दिनों वे बच्चों की फिल्म आजा तू की तैयारी कर रहे हैं जिसे राष्ट्रीय पर रिलीज किया जाएगा।
कल्वाई शहर आरा के युवा रंगकर्मी निर्देशक रवीन्द्र भारती के मेहनत, लगन और सफलताओं से जाहिर होता है कि उन्होंने मजिल की ओर अग्रसर होने के लिए जगह बनायी, अपने अंदर अरमां जगाये और अपने जनून को जिस तरफ मोड़ना चाहा उस तरफ कामयाबी मिली। उत्तर मध्य सांस्कृतिक केन्द्र इलाहाबाद द्वारा आयोजित प्रशिक्षण शिविर में भाग लेने के बाद उनका आत्मविश्वास बढ़ा और स्वयं निर्देशित तथा लिखित नाटक ‘सावधान नशा जारी है’ में बॉडी क्राफ्ट का प्रयोग कर रवीन्द्र भारती ने आरा के दर्शकों के सामने एक मिसाल पेश की।
रंगकर्म में 23 वर्षों की कठिन साधना, लगन और मेहनत ने रवीन्द्र भारती को आरा शहर के अलावा आस पास के क्षेत्रों में भी पहचान दिलाई है । इनका मानना है कि रंगमंच मन बहलाने और मनोरंजन के लिए नहीं है। रंगमंच एक यज्ञशाला है, जिसके लिए रंगकर्मी को अपने विचारों में मान्यताओं में तथा कर्म में शुद्ध होना पड़ेगा। आरा में जन्में रवीन्द्र भारती का रंगकर्म के प्रति रुझान बाल्यावस्था से है। अपने दादाजी स्व0 डॉ0 हरिवंश कुमार सिन्हा को ये रंगमंच में प्रवेश का श्रेय देते हैं। इनका जन्म 18 अगस्त 1970 को भोजपुर जिला के आरा शहर में डॉ हरिवंश कुमार सिन्हा के घर में हुआ था। रवींद्र भारती के पिता का नाम तारकेश्वर शरण सिन्हा व माता का नाम नंदनी सिन्हा है। देश के चर्चित रंगकर्मी और पत्रकार रवींद्र भारती एक अभिनेता एक निर्देशक के रूप में चर्चित हैं।
बचपन से ही अभिनय के लिए कई पुरस्कार जीतने वाले रवींद्र भारती की पढ़ाई कैथोलिक मिशन स्कूल और हर प्रसाद दास जैन स्कूल में हुई। कालेज की शिक्षा जैन कॉलेज आरा में हुई। प्रारंभ में ये स्कूल के प्रायोगिक नाटकों की शुरुआत की,स्कूल में उन्हें अच्छा अभिनय के लिए भारतीय स्टेट बैंक ने “बेस्ट ब्याय ऑफ स्कूल” से सम्मानित किया।
पिता तारकेश्वर शरण सिन्हा के कहने पर सर्वप्रथम ये नाट्य संस्था ‘भूमिका’ से जुड़े और विजय तेन्दुलकर लिखित नाटक ‘घासी राम कोलबाल में सूत्रधार की भूमिका से चर्चा में आए। उसके बाद तो कई मंचीय और नुक्कड़ नाटकों के जरिये आरा के रंगकर्म के इतिहास में एक नई सोंच से भारती आरा रंगमंच में अहम स्थान बनाने में सफल रहे। बच्चों की प्रस्तुति हबीब तनवीर की चर्चित कृति ‘चरन दास चोर को लोगों ने सराहा । ‘ झुग्गी-झोपड़ी के बच्चों के साथ शिविर को प्रमुख मानते हैं।
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