क्या वेब सीरीज भारत में बदलाव की पक्षधर है !

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2.3 अरब वैश्विक उपभोक्ताओं के साथ ऑनलाइन ओटीटी प्लेटफार्म एक गजब का वैश्विक आभासी मंच है जहाँ जहां दर्शक अलग-अलग विषयों से सम्बंधित अच्छी फिल्मों को खंगालते नज़र आ रहे हैं। । नेटफ्लिक्स, अमेज़ॉन प्राइम, हॉटस्टार, हुलु, वूट, जिओ सिनेमा आदि जैसे वैश्विक और क्षेत्रीय ओटीटी प्लेटफार्मों ने फिल्मो और वेब-सीरीज़ की एक नई परम्परा विकसित है जो ग्लोबल संस्कृति के प्रचार-प्रसार में अग्रणी भूमिका निभा रही है । सिनेमाई-संस्कृति परिष्कृत हो रही है और नए दर्शक बन रहे हैं । अगर सच कहा जाये तो ओटीटी प्लेटफार्म वीडियो मनोरंजन सामग्री का एक ऑनलाइन पुस्तकालय है जहाँ दर्शक पेड-सब्सक्राइबर बनकर प्रवेश करते हैं और अपनी पसंद के हिसाब से फिल्मे या वेब-सीरीज देखते हैं | यह व्यवस्था समाज को मनोरंजन करने के लिए एक अलग तरह की छूट देती है जहाँ पाबंदियां न के बराबर हैं| साथ ही निर्माताओं, लेखकों और अभिनय के क्षेत्र में आनेवाली प्रतिभाओं के लिए ओटीटी प्लेटफार्म एक बड़ी व्यवस्था है।
“एक विशेषाधिकार के रूप में मनोरंजन” भारतीय दर्शकों के लिए बिलकुल नए स्वाद की तरह हैं । फिल्म थियेटर जाने की परम्परा और उससे जुड़े विभिन्न दर्शक -व्यवहारों के बनिस्पत घर बैठे इस आरामदायक व्यवस्था के भी अनेकानेक पहलू हैं जो विचार-योग्य हैं । सिनेमाई-संस्कृति परिष्कृत हो रही है और नए दर्शक बन रहे हैं । ये नए दर्शक बेहद निजी और आरामदायक माहौल में लम्बी अवधि तक मनोरंजन से जुड़े रहते हैं।

आईबीइऍफ़, फ़रवरी 2021 की रिपोर्ट के अनुसार , विभिन्न ओटीटी प्लेटफार्मों पर भारतीय दर्शकों द्वारा बिताया गया समय 188 बिलियन मिनट था , जिसमे डेली सोप में 69 बिलियन मिनट और फिल्मों में 31 बिलियन मिनट का समय था। दिन-प्रतिदिन जिस तरीके- से मनोरंजन की मांग बढ़ती जा रही है और उपभोक्ताओं द्वारा उसपर खर्च करने का समय भी बढ़ता जा रहा है, उस बात को मद्देनज़र रखते हुए स्वस्थ मनोरंजन की भागीदारी को सुनिश्चित करना और उसकी हिस्सेदारी बढ़ाना एक चुनौती के रूप में सामने खड़ा है। ऐसा बिलकुल नहीं हैं कि इस नई व्यवस्था या मनोरंजन से जुड़े दर्शकों के अधिकार में कोई बुराई हैं लेकिन यहाँ पर प्रत्येक आयु के दर्शक-वर्ग हैं , जो समय या फिर फिल्म के विषय-प्रतिबंध से परे हैं | साथ ही यह व्यवस्था प्रत्येक क्षण विभिन्न आयु-समूह के दर्शकों के साथ टेलीविज़न के अलावा मोबाइल, लैपटॉप के रूप में हमेशा साथ रहती हैं जिसकी वजह से दर्शक स्वयं पर उपभोग करने के मामले में अंकुश तभी लगा सकते हैं जब उनका स्वयं पर पूर्ण नियंत्रण हो या फिर उनमे विषय-चुनाव या उपभोग-समय के प्रति जागरूकता, और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभावों कि समझ हो। तो क्या इस वृहद वैश्विक संस्कृतिकताओं के बीच भारतीय दर्शक वर्ग तमाम मनोरंजन को केवल मनोरंजन के रूप में उपभोग करने के लिए तैयार हैं या फिर इन सबका मनोवैज्ञानिक रूप से परिपक्वता और अपरिपक्वता के बीच विशेष प्रभाव हो सकता हैं ! इन सभी बातों और चिंताओं की पड़ताल करनी जरूरी हैं |
वेब-सीरीज और ऑनलाइन फिल्मों के साहसिक खुलेपन, बदलती भाषा (गालियों और उससे संबंधित अपमानजक जुमले के संदर्भ में) और विषय के चुनाव के बारे में न केवल दर्शकों बल्कि लेखन और निर्देशन की भूमिकाओं के सन्दर्भ में एक राष्ट्रीय स्तर पर एक वृहत परिचर्चा और बहस की जरूरत महसूस की जा रही है ताकि इस रचनात्मक वैश्विक मंच को समाज के वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, कलात्मक, समस्या-समीक्षा, रोजगार और सकारात्मक बदलाव की तरफ उन्मुख किया जा सके ।
देश के विकास की दिशा में प्रत्येक क्षेत्र से जुडी समस्याओं और संभावनाओं पर , “अनुसन्धान आधारित फिल्मे” और “वेब-सीरीज” अधिकाधिक संख्या में आनी जरूरी है तो क्यों हैं और किस प्रकार के बदलावों की जरूत महसूस की जा रही हैं, इसी विषय पर यह लिखित परिचर्चा है जिसमे मीडिया और अन्य क्षेत्रों से जुड़े दिग्गज अपने विचार यहाँ साझा करने जा रहे हैं। इस परिचर्चा में विभिन्न शीर्षकों के माध्यम से विचारों की प्रस्तुति की जा रही है|

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भाग -1 (निर्माता और निर्देशक मनोज वर्मा से की गयी बातचीत के अंश)

“एक फ़िल्मकार किन-किन कठिनाइयों का सामना करता है, यह दुनिया को देखना जरूरी है क्योंकि हर चमकने वाली चीज़ सोना नहीं होती और जो चीज़ चमकती है, उसकी रौशनी के पीछे कितनी कठिनाई और परेशानी छिपी है , यह अगर फिल्म के माध्यम से दिखाया जाता है तो लोगों का फिल्मों के प्रति नज़रिया बदलेगा।“

-मनोज वर्मा, निर्माता, निर्देशक और पटकथा लेखक।
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-मनोज वर्मा

प्रश्न-१* क्या आप इस बात से सहमत हैं कि भारत को शैक्षिक और प्रेरक फिल्मों की जरूरत है? यह भारतीय समाज में विकसित होने वाले दृष्टिकोण और व्यवहार को बदलने में कैसे मदद कर सकता है?  

उत्तर: जी! मुझे लगता हैं कि भारत में शैक्षिक और प्रेरक सिनेमा की आवश्यकता हमेशा से रही हैं और इस तरह के सिनेमा बनते रहने चाहिए। सिनेमा मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षा का भी एक बड़ा श्रोत हैं, जैसा कि हमसब जानते हैं कि यह समाज का आईना होता हैं और इसका समाज पर व्यापक असर पड़ता हैं । आपको याद होगा कि जब “जय संतोषी माँ” फिल्म रिलीज़ हुई थी तो लोगों ने शुक्रवार के व्रत रखने शुरू कर दिए थे, यह जनमानस के ऊपर एक व्यापक प्रभाव का उदाहरण था । अभी हाल में ही आई प्रेरक फिल्म “गुंजन सक्सेना ” ने महिला सशक्तिकरण को प्रमुखता से दिखलाया था, “पान सिंह तोमर” और “भाग मिल्खा भाग” जैसी फिल्में न केवल मनोरंजन करती हैं बल्कि समाज के लिए प्रेरणादायी हैं । “तारे जमीन पर”, “थ्री इडियट्स”, “सुपर ३०” जैसी फिल्में मुख्यधारा कि फ़िल्में होते हुए भी संदेशात्मक फ़िल्में रही हैं । चूँकि भारत एक सांस्कृतिक देश हैं और यहाँ विभिन्न धर्म-संप्रदाय के लोग निवासरत हैं और इसके चलते काफी वैचारिक मतभेद देखने को मिलते हैं तो ऐसी स्थिति में प्रेरक और शैक्षिक सिनेमा ही सशक्त माध्यम है जो समाज को सही दिशा में ले जा सकती है ।

प्रश्न-2क्या आपको लगता है कि वेब सीरीज प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल सही दिशा में नहीं हो रहा हैअगर ऐसा हैं तो इसके मुख्य कारण के रूप आप क्या देखते हैं ?

उत्तर: वेब-सीरीज का वास्तव में दुरूपयोग हो रहा है जिसका कारण इसपर सेंसर की लगाम का नहीं होना है । सर्वविदित है कि वेब-सीरीज को देखने के लिए सिनेमाघरों की आवश्यकता नहीं है और न ही इन्हे समूहों में बैठकर देखा जाता है । आज बच्चे से लेकर बूढ़ों के पास तक मोबाइल उपलब्ध है और हर व्यक्ति बड़ी निजता के साथ इन कंटेंट्स को देखता है और उनको पता ही नहीं चल पाता कि कब वे इन अपशब्दों को और असंवैधानिक, असमाजिक रिश्तों को सामाजिक रूप से स्वीकारने लगे हैं । पूर्व में सामूहिक रूप से परिवार के सामने गाली-गलौज की भाषा सुनने से एक शर्मनाक स्थिति पैदा हो जाती थी लेकिन आज यह एक सामान्य-सी बात में बदलती जा रही है । कहीं न कहीं यह हमारी संस्कृति और उसके शाब्दिक संस्कार को तार-तार कर रही है । मुझे लगता है कि सिनेमा की तरह इस पर भी सामाजिक दृष्टिकोण के नियम लगाए जाने कि आवश्यकता है जिससे समाज में क्रूरता और अश्लीलता न परोसी जाये।

प्रश्न-3* वेब सीरीज में बहस के केंद्र में शब्द और भाषा में बड़ा बदलाव है। आप इसे कैसे परिभाषित करेंगे? क्या आपको लगता हैं कि भाषा फिल्मों के चरित्र का एक महत्वपूर्ण पहलू हैं और इसका व्यापक असर कई स्तरों पर होता हैं?

उत्तर: देखिये, जहाँ तक भाषा-प्रयोग वाली बात है , मुझे ये समझ में नहीं आया कि किसी  बात को कहने के लिए गाली देना कितना आवश्यक है! सामान्यतः अपशब्दों का प्रयोग लोग अपने दोस्तों के साथ किसी स्थिति में करते हैं लेकिन एक क्लोज सर्किल में सार्वजनिक रूप से ऐसी भाषा का प्रयोग असंसदीय है और असामान्य है। यह केवल फिल्म की ही बात नहीं है, भाषा एक ऐसी अभिव्यक्ति है जो आपके सभ्यता-संस्कार को दर्शाती है। आपकी भाषा ही आपके संस्कार को दर्शाती है और उसी से पता चल जाता है की आपकी परवरिश कैसे हुई है और आप कैसे माहौल में रहते हैं । तो जबकि भाषा इतनी महत्वपूर्ण है, ऐसे में अपशब्दों व गालियों को वेब-सीरीज या फिल्मों में डालकर इसे सार्वजनिक किया जा रहा है जिससे बहुत बड़ी क्षति हो रही है, भाषिक-मर्यादा का उल्लंघन हो रहा है ,ऐसा मेरा मानना है ।

प्रश्न-4* क्या आपने कभी ऐसा महसूस किया है की आप जिस पेशेवर-क्षेत्र से जुड़े हैं , उस क्षेत्र से जुड़े विषयों पर फिल्में बननी चाहिए ? यदि ऐसा है तो किन स्थितियों में आपने ऐसा महसूस किया है?

उत्तर: हर क्षेत्र की अपनी एक अलग कहानी है, उसके अपने व्यवसायिक दृष्टिकोण हैं , अपनी चुनौतियाँ और सम्भावनाएँ हैं ।मुझे लगता है कि हर क्षेत्र से जुडी फिल्में समाज में आनी चाहिए चाहे वह मेरा पेशेवर क्षेत्र ही क्यों न हो। लोगों को अधिकाधिक उस क्षेत्र के बारे में अवगत करने के दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम होगा । जैसे कि एक फ़िल्मकार किन-किन कठिनाइयों का सामना करता है, यह दुनिया को देखना जरूरी है क्योंकि हर चमकने वाली चीज़ सोना नहीं होती और जो चीज़ चमकती है, उसकी रौशनी के पीछे कितनी कठिनाई और परेशानी  छिपी है , यह अगर फिल्म के माध्यम से दिखाया जाता है तो लोगों का फिल्मों के प्रति नज़रिया बदलेगा।

प्रश्न-5* क्या अपने कोई ऐसी वेब-सीरीज देखी है जिसकी चर्चा आप पाठकों से करना चाहेंगे ?

उत्तर: जी हाँ! चूँकि मैं एक फिल्मकार हूँ, इसलिए सीखने-जानने के उद्देश्य से फिल्में और वेब-सीरीज देखता हूँ । अभी कुछ समय पहले पंचायत वेब-सीरीज आयी थी जो कि ग्रामीण-परिवेश में बड़े ही नैसर्गिक रूप में बनाई गयी है। देखकर ऐसा लगता है जैसे कि हमारे बीच की कहानी है। इस वेब-सीरीज में किसी प्रकार का कोई बनावटीपन नहीं है और न ही कोई आवश्यक हिंसा या सेक्स से जुड़े दृश्य। इस तरीके की वेब-सीरीज मन को शांति देती है और फील-गुड कराती हैं। इसी तरह संगीत को लेकर “बंदिश बैंडिट्स” सीरीज ने घरानेदार संगीत का परिदृश्य खींचकर रख दिया था। भारतीय संगीत पर आधारित यह पहली वेब-सीरीज होगी जिसने रागों के शुद्ध-प्रस्तुतीकरण पर जोर दिया और इसमें काफी हद तक सफल रही। हालांकि उपरोक्त दोनों ही वेब-सीरीज में अपशब्दों का अनावश्यक प्रयोग दिखता है और इन्हे भी केवल अपशब्दों के कारण आप अपने परिवार के साथ बैठकर सामूहिक रूप से नहीं देख सकते।

परिचर्चा, भाग -2/  पटकथा लेखक और निर्देशक , राजीव सक्सेना जी से हुए वार्तालाप पर आधारित

वेबसीरीज हों या ओटीटी पर रिलीज होने वाली फिल्मों के कन्टेंट में अगर प्रोफेशनल टच होगा तो शायद इन विषमताओं से लड़ाई लड़ी जा सकती है. भारतीय युवा वर्ग को सही दिशा में वापस मोड़ने के लिए फिल्मकार, व्यावसायिक विषयों को लेकर खास तरह की सीख देने वाली कहानियों को मनोरंजन के साथ पेश करें तो वेबसीरीज की इन बुराईयों से, युवाओं को काफी हद तक बचाया जा सकता है।

राजीव सक्सेना
पटकथा लेखक और निर्देशक
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राजीव सक्सेना

प्रश्न-1* शैक्षिक और प्रेरक फ़िल्में भारतीय समाज में विकसित होने वाले दृष्टिकोण और व्यवहार को बदलने में कैसे मदद कर सकती हैं ?

उत्तर: भारतीय सिनेमा का इतिहास सवा सौ साल से ज्यादा पुराना है।बोलती हुई फिल्मों से पहले सिनेमा के पितृपुरुष दादा साहब फाल्के जी की शुरुआती मूक फिल्मों की बात की जाये तो शैक्षिक और प्रेरक फिल्मों का निर्माण उसी दौर से होने लगा था। दादा फाल्के की फिल्मों में आवाज नहीं थी, लेकिन दर्शकों के लिए कोई न कोई सन्देश अवश्य होता था।

उन्नीस सौ तीस के बाद फ़िल्मकार आर्देशिर ईरानी ने पहली बोलती फ़िल्म ‘आलम आरा’ बनाई वो भी एक तरह से शैक्षिक फ़िल्म ही थी, जो इतिहास से जुड़े कथानक को रेखांकित करने वाली थी। यानी हमारे यहां सिनेमा का आरम्भ ही सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन के उद्देश्य से नहीं होकर प्रेरक सन्देश के साथ हुआ।

साहित्य की तरह सिनेमा को भी समाज का आईना माना गया जो कि समाज की वास्तविक तस्वीर पर्दे पर पेश करता रहा है। समय के परिवर्तन के साथ देश में कई तरह के बदलाव हुए। सामाजिक विषमताओं, विडम्बनाओं की वजह से अपराध से जुड़ी घटनाओं में इज़ाफ़ा होता गया।

मानवीय मूल्यों में आश्चर्यजनक रूप से क्रमशः गिरावट होती गई। भारतीय परिवारों में दहेज़ जैसी कुरीतियों को लेकर आपराधिक मामले बढ़ने लगे। सत्तर साल पहले बनी फ़िल्म ‘नास्तिक’ में पंडित प्रदीप का लिखा और गाया हुआ गीत ‘देख तेरे संसार की हालत, क्या हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान..’ अपने आप में उस दौर की कहानी बयां करता है। स्पष्ट है कि भारतीय समाज में जिस तरह नकारात्मक बातें बढ़ती गईं, जो आज तक जारी हैं और एक विकराल स्वरुप ले चुकी हैं, उसके मुताबिक सिनेमा ही एक अच्छा माध्यम साबित हो सकता है जिससे काफी हद तक सुधार की सम्भावना बन सकती है। फ़िल्म अभिनेताओं को, उनके किरदारों को आदर्श मानने वाले आम आदमी पर प्रेरक कथानक वाली, सन्देश प्रधान फ़िल्में प्रभाव डाल सकती हैं। खास कर युवा पीढ़ी को तमाम भटकाव से रोकने में भी सिनेमा, टेलीविज़न धारावाहिक और वेब श्रृंखलाएं भी प्रभावी साबित हो रही है|

प्रश्न-2* क्या आपको लगता है कि वेब सीरीज प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल सही दिशा में नहीं हो रहा है? अगर ऐसा हैं तो इसके मुख्य कारण के रूप आप क्या देखते हैं ?

उत्तर: वेबसीरीज की स्ट्रीमिंग या प्रसारण, जिन ओटीटी प्लेटफार्म्स पर किया जा रहा है उनमें से अधिकतर भारतीय नहीं विदेशी हैं। कुछ ओटीटी प्लेटफार्म्स ही हमारे यहां से हैं लेकिन उनका भी कॉलोब्रेशन बाहर के देशों की प्रसारण संस्थाओं से है, लिहाजा इनके कंटेंट अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों के अनुसार रखे गए हैं जिनका उद्देश्य विशुद्ध रूप से मनोरंजन, अधिक सब्सक्राइबर्स और अधिक पैसा कमाना है। जाहिर है, भारतीय दर्शकों खास कर युवा दर्शक वर्ग के लिए इन तमाम ओटीटी के कंटेंट पथभ्रष्ट करने वाले ही साबित हो रहे हैं। ज्यादातर वेबसीरीज चाहे किसी भी कथानक पर आधारित हो, घुमा – फिरा कर उनमें महानगरों की उन्मुक्त जीवन शैली को अतिरिक्त खुलेपन के साथ दिखाया जाना अनिवार्य -सा बना दिया गया है। सेक्स को लेकर वहां कोई वर्जना नहीं है।

परिपक्व किस्म के किरदार हों या टीन एजर्स या युवा हर किसी को बिंदास दिखाए जाने की होड़ सी लगी है।

कारपोरेट जगत की भीतरी कार्यप्रणाली, देर रात की पार्टियों में नशे में मस्त लड़के लड़कियां, उच्च मध्यवर्गीय घरों में बनते – बिगड़ते – टूटते – जुड़ते रिश्तों की विषमतायें, छोटे या मझोले शहरों, कसबों में घटिया राजनितिक प्रश्रय के साथ पनपती गुंडागर्दी, तमाम तरह के छोटे – बड़े अपराध…ये सब वेबसीरीज की विषयवस्तु में शुमार हैं। यानी इन प्लेटफार्म्स का इस्तेमाल सही दिशा में तो बिलकुल नहीं हो रहा है यह कटु सत्य है, और इसकी सीधी साफ वजह इन प्लेटफार्म्स का किसी तरह के सेन्सरशिप के दायरे में नहीं होना है। सरकारी प्रसारण यानी दूरदर्शन हो या सिनेमा या मनोरंजन चैनल्स इन सबको तो कितने ही कठोर नियम कानून के दायरे में रखा गया है। कई तरह के प्रतिबन्ध, कई सारी नीतियां निर्धारित की गई हैं, लेकिन विदेशी स्वामित्व के चलते कितने ही ध्यानाकर्षण के बावजूद आज तक ओटीटी पर किसी तरह के कानून लागू नहीं किये गए, कोई गाइडलाइन नहीं बनाई गई। संसद में, संसद से बाहर अनेक घोषणाएं की गई, लेकिन सर्वसम्मति से कोई कानून अभी तक नहीं बनाये गए हैं ।

इसका भी सबसे बड़ा कारण देश के सबसे बड़े कुछ औद्योगिक घरानों का इन ओटीटी प्लेटफार्म्स से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ना या पूँजीनिवेश किया जाना है। सरकार के हितचिंतक उद्योगपति अगर इस बड़े कारोबार को नई पीढ़ी के बीच सुव्यवस्थित बाजार बतौर विकसित करने के लिए आगे बढ़ चुके हैं तो सरकार इनकी तमाम नकारात्मक बातों को नज़रअंदाज ही करेगी।

प्रश्न-3* वेब सीरीज में बहस के केंद्र में शब्द और भाषा में बड़ा बदलाव है। आप इसे कैसे परिभाषित करेंगे? क्या आपको लगता हैं कि भाषा फिल्मों के चरित्र का एक महत्वपूर्ण पहलू हैं और इसका व्यापक असर कई स्तरों पर होता हैं?

उत्तर: वेबसीरीज के कंटेंट में भाषा का निम्नस्तरीय प्रयोग भी करोबारी जगत का एक सोचा समझा षड़यंत्र ही है। स्कूल, कॉलेज के स्टूडेंट्स हों या कारपोरेट जगत से जुड़े युवा कार्यकर्त्ता, तथाकथित अत्याधुनिक शैली को फैशन बतौर इस्तेमाल करने की अंधी धुन में अभद्र समझी जाने वाली, निम्नवर्ग की गलियों तक को धड़ाधड़ रोजमर्रा की बोलचाल का हिस्सा बना रहे हैं। वेबसीरीज का इस मामले में सबसे बड़ा और अहम योगदान है। हिंदी या अन्य भारतीय भाषा की फिल्मों पर अब तक भारतीय संस्कृति को नुकसान पहुँचाने का ज़िम्मेदार ठहरा कर आरोप लगाए जाते रहे हैं लेकिन इनसे भी दस गुना आगे बढ़कर ये वेबसीरीज भारतीय युवा को तकरीबन एक अँधेरी गली की तरफ डाइवर्ट करने की कगार तक पहुंचा चुकी हैं। आज के नौजवानो में घर के बुजुर्गो के लिए सम्मान की बेहद कमी होती जा रही है। मां – बाप से बातचीत के तरीके एकदम हलके स्तर पर पहुँच चुके हैं। लड़के तो लड़के लड़कियां भी अत्याधुनिकता की अंधी दौड़ में भाषा ही नहीं चारित्रिक सीमारेखाओं को लगभग लाँघ चुकी हैं। छोटे क़स्बों से मेट्रो सिटीज में नौकरी करने पहुंची मध्यवर्गीय लड़की तक की बदली हुई जीवनशैली ताज़्जुब में डाल देती है|

प्रश्न-4* क्या आपने कभी ऐसा महसूस किया है की आप जिस पेशेवर-क्षेत्र से जुड़े हैं , उस क्षेत्र से जुड़े विषयों पर फिल्में बननी चाहिए ? यदि ऐसा है तो किन स्थितियों में आपने ऐसा महसूस किया है? क्या अपने कोई ऐसी वेब-सीरीज देखी है जिसकी चर्चा आप पाठकों से करना चाहेंगे ?

उत्तर: वेबसीरीज हों या ओटीटी पर रिलीज होने वाली फिल्मों के कन्टेंट में अगर प्रोफेशनल टच होगा तो शायद इन विषमताओं से लड़ाई लड़ी जा सकती है। भारतीय युवा वर्ग को सही दिशा में वापस मोड़ने के लिए फिल्मकार, व्यावसायिक विषयों को लेकर खास तरह की सीख देने वाली कहानियों को मनोरंजन के साथ पेश करें तो वेबसीरीज की इन बुराईयों से, युवाओं को काफी हद तक बचाया जा सकता है।

कुछ वेबसीरीज यहां काबिल ए ज़िक्र हो सकती हैं जिनमें ‘फैमिलीमेन’, ‘महारानी’, ‘पंचायत’ ‘आश्रम’ ‘माधुरी टाकीज’ आदि हैं जिनमें कथानक में कुछ खास सन्देश खूबसूरती से पिरोये गए हैं जो हमारे युवाओं को गलत दिशा में जाने से रोकने के लिए प्रेरित करते हैं।

‘महारानी’ वेब श्रृंखला में राजनीति की तमाम विडंबनाओं को रेखांकित किया गया है। भ्रष्टाचार के कीर्तिमान स्थापित करने वाले विभिन्न दलों के शातिर नेताओं के जाल में फंसने से नौजवान खुद को बचा सकते हैं।

‘माधुरी टाकीज’ में छोटे कस्बों के स्थानीय नेताओं द्वारा युवकों को पथभ्रष्ट करने के कई सारे घटिया तरीकों से बचने के लिए चेतावनी दी गई है।

प्रकाश झा सारीखे सुलझे हुए फ़िल्मकार ने ‘आश्रम’ में अध्यात्म के आकर्षण में अपनी ज़िन्दगी दांव पर लगाने वाले युवाओं को सचेत किया है। किस तरह राजनीति और अध्यात्म की जुगलबंदी देश के नौजावानों को गुमराह कर उनके इस्तेमाल से अपना उल्लू सीधा करती है ‘आश्रम’ में इसे खुलकर दिखाया गया है।

 परिचर्चा ,भाग -3 

(निर्माता और निर्देशिका, स्मिता त्रिपाठी से हुए साक्षात्कार पर आधारित)

“वेब श्रृंखला अब एक वास्तविकता है, हालांकि इसे इसकी उचित पहचान नहीं मिली है। एक अच्छी फिल्म की श्रेणी अंततः इस बात से तय की जाएगी कि वेब श्रृंखला कितनी प्रेरक और मानसिक रूप से दर्शकों को प्रभावित करती है, और इसे गलत प्रकार की भाषा या दृश्यों की बहुतायतता से प्रभावित नहीं होना चाहिए।“

-स्मिता त्रिपाठी (निर्माता और निदेशक), सिक्स्थ सेंस मीडिया प्रोडक्शन, मुंबई |
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-स्मिता त्रिपाठी
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प्रश्न 1 : क्या आप इस बात से सहमत हैं कि भारत को शैक्षिक और प्रेरक फिल्मों की जरूरत है? यदि हां, तो कृपया इस पर अपने विचार दें । यह भारतीय समाज में विकसित होने वाले दृष्टिकोण और व्यवहार को बदलने में कैसे मदद कर सकता है? यदि आपका उत्तर नहीं है, तो कृपया अपना दृष्टिकोण जोड़ें।

स्मिता: हां, निश्चित रूप से न केवल भारत, बल्कि किसी भी देश को समाज में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए शैक्षिक फिल्मों की आवश्यकता है। हमारे देश में जहां निरक्षरता एक प्रमुख मुद्दा है, यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। फिल्में महत्वपूर्ण मुद्दों पर विभिन्न वर्जनाओं और निश्चित मानसिकता को तोड़ने में मदद कर सकती हैं। उदाहरण के लिए टॉयलेट और पैडमैन आदि जैसी फिल्में समाज के सभी वर्गों तक पहुंचने में मदद कर सकती हैं। प्रसिद्ध अभिनेता और अभिनेत्रियां अपनी सामूहिक अपील और ब्रांड वैल्यू के कारण महत्वपूर्ण रूप से जोड़ सकते हैं। फिल्में महत्वपूर्ण मुद्दों पर विभिन्न वर्जनाओं और निश्चित मानसिकता को तोड़ने में मदद कर सकती हैं। उदाहरण के लिए टॉयलेट और पैडमैन आदि जैसी फिल्में समाज के सभी वर्गों तक पहुंचने में मदद कर सकती हैं। प्रसिद्ध अभिनेता अपनी सामूहिक अपील और ब्रांड वैल्यू के कारण इसे महत्वपूर्ण कार्य के सहभागी बन सकते हैं और शैक्षिक फिल्मों को बढ़ावा देने का जज्बा प्रदान कर सकते हैं ।

प्रश्न 2:क्या आपको लगता है कि वेब सीरीज प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल सही दिशा में नहीं हो रहा है?

स्मिता: वेब सीरीज अब एक हकीकत है, हालांकि अभी भी इसे अपनी उचित पहचान नहीं मिली है। प्रमुख अभिनेता और फिल्म निर्माता इसे प्रतिष्ठित नहीं मानते हैं। अधिकांशतः अश्लील भाषा और दृश्यों के अनियंत्रित उपयोग और सेंसर प्रतिबंधों को दरकिनार करने के लिए वर्तमान में वेब श्रृंखलाओं को एक माध्यम माना जाता है। एक अच्छी वेब श्रृंखला फिल्म निर्माताओं को उन विषयों पर विस्तृत शोध कार्य करने और उन पहलुओं को प्रदर्शित करने का अवसर प्रदान करती है जिन्हें सामान्य लंबाई की फिल्मों की तरह 90 से 120 मिनट की सामान्य अवधि में कवर नहीं किया जा सकता है। साथ ही, यह नवोदित प्रतिभाओं के लिए एक उत्कृष्ट मंच है जहां व्यावसायिक पहलुओं को फिल्म निर्माण के लिए प्रमुख निर्णायक कारक होने की आवश्यकता नहीं है और यह उन्हें उन मुद्दों पर वेब श्रृंखला के माध्यम से जनता तक पहुंचने का अवसर प्रदान करती है जो केवल व्यावसायिक व्यवहार्यता द्वारा नियंत्रित नहीं होते हैं।

प्रश्न 3: वेब श्रृंखला में बहस के केंद्र में शब्द और भाषा में भारी बदलाव है। आप इसे कैसे परिभाषित करेंगी ? क्या आपको लगता है कि भाषा फिल्मों के चरित्र का एक अनिवार्य पहलू है और इसके व्यापक प्रभाव हैं?

स्मिता: मैं इस बात से सहमत हूं कि किसी भी फिल्म के चरित्र के लिए भाषा एक महत्वपूर्ण पहलू है, हालांकि, बिना कहे बहुत कुछ कहा जा सकता है। अभद्र भाषा का प्रयोग कुछ लोगों को क्षण भर के लिए उत्तेजित कर सकता है लेकिन अंततः यह एक बुरा स्वाद छोड़ देता है। एक अच्छी फिल्म की श्रेणी अंततः इसी बात से तय होगी कि वेब श्रृंखला कितनी प्रेरक है और मानसिक रूप से प्रभावित करती है | साथ ही यह भी कहूँगी कि वेब सीरीज के निर्माण को गलत प्रकार की भाषा या दृश्यों की भरमार के दायरे के मोहपाश से दूर रखा जाना चाहिए ।

परिचर्चा भाग -4 (भोपाल विद्युत प्रमंडल के मुख्य अभियंता विवेक रंजन श्रीवास्तव जी से की गयी बातचीत के महत्वपूर्ण अंश…)

“भारत में इंजीनियरिंग विषयो की वेब फिल्मे सेमिनार व शिक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं और खासकर युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत, शिक्षा और शोध की तरफ उन्हें उन्मुख करने की दिशा में इसकी प्रभावशाली भूमिका हो सकती है ।“

-विवेक रंजन श्रीवास्तव, मुख्य अभियंता
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विवेक रंजन श्रीवास्तव

प्रश्न 1 :एक बढ़ोतरी के रूप में शैक्षिक और प्रेरक फ़िल्में भारतीय समाज के लिए कैसे कार्य करेंगी ? इस विषय को आप किस रूप में देखते हैं ?

उत्तर : शैक्षिक व प्रेरक फिल्मे हमारे भारतीय समाज मे नई चेतना ला सकती हैं , इसमें कोई दो राय नहीं है ।यह निर्विवाद है कि दृश्य- माध्यम बेहद प्रभावी होते हैं और वेब- सीरीज कम लागत में भी बन सकती है जिसके कारण यह यह रचनात्मकता और प्रयोग के लिए खुला माध्यम है। अतः प्रत्येक क्षेत्र में उनका स्वागत है। भारत में अगर देखा जाये तो इंजीनियरिंग विषयो की वेब फिल्मे सेमिनार व शिक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं और मुझे लगता है कि इस क्षेत्र के ऊपर भी कई तरीके से वेब-सीरीज बनाई जा सकती है जो खासकर युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत, शिक्षा और शोध की तरफ उन्हें उन्मुख करने की दिशा में कार्य करेंगी

प्रश्न 2 : क्या आप यह महसूस करते हैं कि वेब सीरीज जैसे वैश्विक मंचों का इस्तेमाल सही दिशा में नहीं हो रहा ?

 उत्तर : आज अगर देखा जाये तो वेब सीरीज प्लेटफार्म का उपयोग उन पूंजीपति प्रोड्यूसरस के हाथों में अनायास चला गया है जो वैचारिक रूप से दिग्भ्रमित हैं । वे भारतीय सांस्कतिक मूल्यों की उपेक्षा कर निहित उद्देश्य के लिए इस माध्यम का उपयोग कर रहे हैं । अब सारी वेब सीरीज ही सेक्स , हिंसा , युवाओं के नैतिक पतन, अश्लीलता के इर्द -गिर्द बन रही है । तुर्रा यह है कि इसे यथार्थ कहा जाता है और जो इस मीडिया के लेखक हैं उनमें कोई पारम्परिक नही दिखता है| स्वयं को स्थापित करने के लिए विकृत मानसिकता के साथ प्रारंभ में कुछ लोग वेब-सीरीज लेखन में जुड़े हैं ,लेकिन यह भी सच है कि ऐसे लोग पतन की ओर जल्दी लुढ़कते हैं ।

प्रश्न-3* वेब सीरीज में बहस के केंद्र में शब्द और भाषा में बड़ा बदलाव है। आप इसे कैसे परिभाषित करेंगे? क्या आपको लगता हैं कि भाषा फिल्मों के चरित्र का एक महत्वपूर्ण पहलू हैं और इसका व्यापक असर कई स्तरों पर होता हैं?

उत्तर :वेब- सीरीज के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि नाम, पैसा मिला तो दुकान चल निकली वाली कहावत चरितार्थ हो रही है, देखा- देखी वैसा लिखने की ओर युवाओं का आकर्षण बढ़ा है।गाली -गलौच की भाषा , अमर्यादित व्यवहार का प्रदर्शन निंदनीय है। हालांकि कुछ निर्माता -निर्देशक अच्छी वेब-सीरीज बनाने में कामयाब हुए हैं लेकिन यह प्रतिशत बहुत कम हैं ।

अभी मैंने फैमली-मेन पूरी देखी , अच्छी लगी । बाकी कई के कुछ अंश जब- तब देखे । कुछ वल्गर लगीं,कुछ आपत्तिजनक भी । वेब -सीरीज एक मौका है जिसका उपयोग सही दिशा में जरूर होना चाहिए ।

 

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परिचर्चा / भाग 5, वरिष्ठ व्यावसायिक पत्रकार, मयंक शर्मा से हुई बातचीत के अंश )

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“समाज के बदलने की दिशा में, मैंने तो यह महसूस किया है कि किताबें अवश्य एक बेहतर विकल्प हैं, लेकिन आज के दौर में किताबों ने भी अपना स्थान खो दिया है।शैक्षिक और प्रेरक फ़िल्में बनें तो उसमें कोई बुराई नहीं है क्योंकि सकारात्मक मनोरंजन अच्छा ही होगा। वेब सीरीज प्लेटफॉर्म्स पर अधिकतर हिंसा, अपराध और सेक्स ही सफल ही रहा है। वैसे मैंने किसी भी सफल वेब सीरीज को पूरा नहीं देखा है, कुछ टुकड़े यूँ ही सोशल मीडिया पर अवश्य देखे होंगे। मिर्जापुर, सेक्रेड गेम्स, क्रिमिनल जस्टिस इत्यादि देखना शुरू करके भी मैं उन्हें झेल नहीं पाया। हाँ, हल्की- फुल्की कॉमेडी और सस्पेंस सीरीज कुछ अवश्य देखी हैं। वेब सीरीज के संदर्भ में, “भाषा “निश्चित रूप से चरित्र का महत्वपूर्ण पहलू हो सकती है, अब एक अपराधी या गैंगेस्टर की जो भाषा होगी वही वहां दर्शानी पड़ेगी। लेकिन ऐसा आवश्यक नहीं है कि बहुत अधिक गाली गलौज स्क्रीन पर करवाया ही जाए। हॉलीवुड में गॉड फादर सरीखी संतुलित भाषा वाली अपराध फ़िल्में भी बन सकती हैं ।मै यह कहूंगा कि हाँ, हर पेशे से जुड़े किरदारों पर फ़िल्में और वेबसीरीज अवश्य बननी चाहिए क्योंकि हर एक पेशा समाज का हिस्सा है और महत्वपूर्ण हैं। फिलहाल, बहुत ज्यादा प्रभावित करने वाली वेब सीरीज अब तक नहीं देखी।

–मयंक शर्मा (वरिष्ठ व्यावसायिक पत्रकार )

मनोरंजन और तकनीकी उन्नति के विस्तार-क्रम में वेब सीरीज व वेब प्रसारित फिल्में एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जहां से स्थानीय संस्कृति और उससे जुड़े उद्योगों को बढ़ावा दिया जा सकता है ।खासकर , फिल्मों की अपेक्षा वेब सीरीज का निर्माण कई श्रृंखलाओं में होता है और प्रत्येक श्रृंखला नई तरकीबें और कौतुहलता सामने लेकर आती हैं। इस स्वरुप की वजह से वेब सीरीज का इस्तेमाल शोधपूर्ण प्रक्रिया के साथ सूक्ष्म से सूक्ष्म वृतांतों को सामने लाने में किया जा सकता है । तकनीकी रूप से फिल्में समाज और संस्कृति का आइना इसलिए भी होती हैं क्योंकि फिल्मों या वेब-सीरीज की विषय-वस्तु और कथानक एक खास समाज या संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं और उस हिसाब से उनके शूटिंग-सेट भी तैयार किये जाते हैं । जैसे कि अगर हम राजस्थान या उत्तर-प्रदेश के किरदारों पर बनायी गयी फिल्में देख रहे हैं , तो दृश्य माध्यम से हम वहां के रहन-सहन , खान -पान , कला व वहां के उद्योगों का अंदाज़ा लगा सकते हैं ।
वेब सीरीज निर्माताओं को यह खास मौका देती है कि वे प्रत्येक श्रृंखला में ज्यादा से ज्यादा वहां के स्थानीय उद्योगों को विषय वस्तु में शामिल करें । भारत का कोई भी गांव, शहर या राज्य ऐसा नहीं है जहाँ लोक कलाएं व संस्कृति आधारित पारम्परिक उद्योग न हो । सबसे बड़ी बात यह है कि इससे न केवल देश के अंदर व्यापार- व्यवसाय के नए रास्ते खुल सकते हैं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय परिपाटी पर भी इन्हे प्रोत्साहन दिया जा सकता है । वेब सीरीज और फिल्मों के जरिये स्थानीय व्यापार-व्यवसाय को एक बड़े स्तर पर प्रोमोट किया जा सकता है , जैसे कि आज पूरे विश्व में बार्बी डॉल और फ्रोजेन कैरक्टर्स एक खास खिलोने के रूप में बच्चों के बीच सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं लेकिन लेकिन भारतीय ऐतिहासिक चरित्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले खिलौनों या किरदारों या सांस्कृतिक उद्योगों की पहचान वैश्विक स्तर पर नहीं बन पायी है क्योंकि उन्हें पर्याप्त तरीके से फिल्मों और बाल-फिल्मों के द्वारा व्यवसयिक तौर पर बढ़ावा नहीं दिया गया है | जबकि देश में संस्कृति आधारित ऐसी कई कहानियां ,पात्र और कलाएं हैं जो वैश्विक बाजार में लोकप्रिय होने की क्षमता रखती हैं|

देश के अंदर व्यापार- व्यवसाय के नए रास्ते खुल सकते हैं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय परिपाटी पर भी इन्हे प्रोत्साहन दिया जा सकता है । वेब सीरीज और फिल्मों के जरिये स्थानीय व्यापार-व्यवसाय को एक बड़े स्तर पर प्रोमोट किया जा सकता है , जैसे कि आज पूरे विश्व में बार्बी डॉल और फ्रोजेन कैरक्टर्स एक खास खिलोने के रूप में बच्चों के बीच सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं लेकिन कोई भी भारतीय चरित्र को प्रतिनिधित्व करने वाले खिलौनों की मांग वैश्विक रूप से नहीं बन पायी है क्योंकि उन्हें पर्याप्त तरीके से फिल्मों और बाल-फिल्मों के द्वारा व्यवसयिक तौर पर बढ़ावा नहीं दिया गया है | जबकि देश में संस्कृति आधारित ऐसी कई कहानियां और पात्र और कलाएं हैं जो वैश्विक बाजार में लोकप्रिय होने की क्षमता रखते हैं |
बिहार की सांस्कृतिक कला और उद्योग पर मैथिली भाषा में बनी फिल्म “मिथिला मखान” कई दृष्टि से एक बेहतरीन फिल्म है । इस फिल्म में बेहतरीन तरीके से बिहार के लोगों का पलायन, मिथिला की जन -संस्कृति, विश्वविख्यात मिथिला चित्रकारी और पारम्परिक मखाना उत्पादन-उद्योग की समस्याओं को रेखांकित किया गया है । यह फिल्म मैथिली भाषा में बनी है|
एक अन्य उदहारण के रूप में , रॉकेट सिंह जैसी फिल्में आती हैं तो समाज के सामने उन पेशेवरों को प्रस्तुत करती हैं जो समाज में विद्यमान तो हैं मगर हमारी नज़रों में उनके काम की अहमियत, उनके जुझारूपन की कद्र बहुत कम होती हैं ।ऐसा इसलिए हैं क्योंकि हम हर पेशे व रोज़गार से जुड़े क्षेत्रों के बारे में सबकुछ नहीं जानते हैं । एक उदाहरण के तौर पर, समाज में सेल्समैन की जॉब खतरनाक और तनावपूर्ण मानी जाती है क्योंकि “बेचना” और “ग्राहक बनाना” कोई आसान प्रक्रिया नहीं हैं फिर भी इस जॉब की अहमियत लोगों की नज़रों में बिलकुल नहीं है । कोई भी उद्योग या व्यवसाय यूहीं चुटकी बजाते हुए नहीं स्थापित नहीं हो जाते हैं बल्कि ग्राहकों के साथ एक विश्वसनीय रिश्ता बनाते हुए ही आगे बढ़ पाते हैं जिनमे विभिन्न स्तरों पर सेल्समेन की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा और सफलता में ऐसी कई चुनौतीपूर्ण भूमिकाएं और पद हैं जिनकी अहमियत समाज को महसूस होनी चाहिए । यहाँ इस बात से कोई सरोकार नहीं कि पद या नौकरी बड़ी हैं या छोटी, क्योंकि सभी एक -दूसरे के सहयोग से ही चलते हैं । तो इस सहयोगात्मक रवैये को सम्मान देने और उनकी चुनौतियों को जानने के लिए समाज के सामने उन्हें कहानियों और किरदारों को लाना बेहद जरूरी हैं ।रॉकेट सिंह ने एक सेल्समेन के किरदार के जरिये न केवल सेल्समेन की काबिलियत और चुनौतियों को प्रदार्शित किया बल्कि व्यवासयिक समाज को यह भी सन्देश दिया कि व्यवसाय में केवल व्यक्तिगत लाभ की भावना ज्यादा दिन तक काम नहीं आती बल्कि ग्राहकों के प्रति वफादारी और काम के प्रति ईमानदारी उद्योग को हमेशा मुनाफे के रास्ते पर रखती हैं ।
एक दूसरी महत्वपूर्ण दृष्टि में , भारत में रोज़गार और विभिन्न पेशों को एक खास विषय के रूप में फिल्मों और वेब सीरीज में शामिल किये जाने का तथ्य अध्यन और संभावनाओं की पड़ताल के रूप में होनी चाहिए । हिन्दी फिल्म “फैशन” में दर्शकों ने मॉडलिंग क्षेत्र की यात्रा और विभिन्न स्तरों पर व्याप्त समस्याओं को देखा, साथ ही ग्लैमर से जुड़े क्षेत्रों में नेटवर्किंग की क्या अहमियत हैं , प्रोफेशनल बने रहना कितना जरूरी हैं , आदि बातों को भी फिल्म के माध्यम से समझा । ठीक इसी तरह “लाखों में एक: सीजन -२” वेब सीरीज ने एक सरकारी जूनियर डॉक्टर की कर्तव्यनिष्ठा दिखाई, साथ ही यह भी दर्शाया कि कैसे भ्रष्ट राजनीति कार्यव्यवस्था के पैटर्न को बिगाड़ देती हैं ।सरकारी योजनाएं क्यों विफल हो जाया करती हैं और कर्तव्यनिष्ठ व ईमानदार लोग कैसे इस भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ लड़ते हैं ।

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